"Bharatendu Harishchandra": Father of Modern Hindi Literature

निज भाषा उन्नति लहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल॥

हिंदी साहित्य के पितामह, हिंदी में आधुनिकता के पहले रचनाकार व आधुनिक हिंदी को शीर्ष पर पहुंचाने वाले कवि " भारतेंदु हरिश्चंद्र " का जन्म 9 सितंबर 1850 वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ। महज 15 वर्ष की उम्र में भारतेंदु ने साहित्य सेवा प्रारंभ कर दी और 18 वर्ष की उम्र में ही "कविवचनसुधा" नामक पत्रिका का संपादन किया। हिंदी भाषा की उन्नति ही उनका मूल मंत्र था।

भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने शुरुआत से ही हिंदी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। भारतेंदु के वृहत साहित्यिक योगदान के कारण सन् 1868 से 1900 तक का काल "भारतेंदु युग" के नाम से जाना जाता है। 

भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेंदु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता , शासकों के अमानवीय शोषण के चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। उन्होंने जनमत को आकार देने के लिए रंगमंच को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया।

भारतेंदु जी ने अपने लेखन काल में हरिश्चंद्र चंद्रिका, कविवचनसुधा व बालबोधिनी नामक पत्रिका का संपादन किया। साथ ही हिंदी में नाटकों का प्रारंभ भारतेंदु जी से ही माना जाता है। भारतेंदु के नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के "विद्या सुंदर" (1867) नाटक के अनुवाद से होती है। इसके बाद से भारतेंदु जी ने कई प्रसिद्ध नाटक लिखे जैसे- सत्य हरिश्चंद्र (1876), भारत दुर्दशा (1875), अंधेर नगरी (1881)।

भारतेंदु जी ने नाटक, कालचक्र ,कश्मीर कुसुम, हिंदी भाषा (निबंध) प्रेम सरोवर, प्रेम माधुरी, प्रेम प्रलाप, प्रेम फुलवारी (कविताएं) आदि कई श्रेष्ठ रचनाएं लिखी। भारतेंदु मुख्यतय श्रृंगार रस प्रधान, भक्ति रस प्रधान, सामाजिक समस्या प्रधान व राष्ट्रीय प्रेम प्रधान कविताएं लिखते थे। और उनकी मुख्य भाषा ब्रजभाषा व खड़ी बोली थी।


34 वर्ष की आयु में 6 जनवरी 1885 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में उनका देहावसान हो गया। उनकी मृत्यु के पश्चात सरकार द्वारा साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले व्यक्तियों को "भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार" से सम्मानित किया जाता है।


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